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शुद्ध संखिया 4 .5 तोला ,
शुद्ध पारद 9 तोला ,
शुद्ध गन्धक 5.5 तोला ,
रस कपूर 9 तोला
स्वर्ण
प्रथम पारा और गन्धक की कज्जली करें , पीछे उसमें रस कपूर और संखिया पृथक् पृथक् पीस कर मिला ग्वारपाठा ( घीकुमारी ) के रस में दो दिन मर्दन कर सात कपड़मिट्टी की हुई आतशी - शीशी में भर कर बालुकायन्त्र में 2 दिन पकावें । स्वांग - शीतल होने पर शीशी को तोड़कर शीशी के गले में जमे हुए मल्लसिन्दूर को निकाल तीन दिन पत्थर के खरल में पीस , खूब महीन होने पर शीशी में भर लें ।
- सि . भै . म . माला
★नोट - मल्लसिन्दूर बनाने में बहुत सावधानी की आवश्यकता है । प्रारम्भ में कूपीस्थ द्रव्यों के पिघलने तक मन्द अग्नि दें , बाद में तेज अग्नि दें । लोहे की सलाई से बराबर शीशी के गले को साफ करते रहें । जब तक शीशी में गन्धक रहेगा ; तब तक सलाई में गन्धक पिघला हुआ काले रंग का देखने में आयेगा । करीब 10-12 घन्टे में इस गन्धक का जारण हो जाता है । फिर संखिया का धुआँ निकलने लगता है । इसी समय डाट लगा दें अन्यथा संखिया सब निकल जायेगा । गन्धक रहते हुए यदि डाट लगा दी जाती है तो गन्धक की गैस बन कर डाट को फेंक देती है या शीशी को तोड़ डालती है । अतः डाट सावधानी से लगावें । साथ ही संखिया के धुआँ से भी बचना चाहिए । मल्लसिन्दूर के लिये 36 घण्टे की आँच पर्याप्त है । यदि मल्लसिन्दूर के योग में पारद से चतुर्थांश #स्वर्ण #वर्क मिलाकर बनाया जाय , तो इससे अधिक गुणकारी मल्लचन्द्रोदय बन जाता है । हम स्वर्ण डालकर बनाते है।
★मात्रा और अनुपान - आधी रत्ती से 1 रत्ती , दिन में दो बार शहद और अदरक के रस के साथ या रोगानुसार अनुपान से दें ।
★गुण और उपयोग -संखिया और कज्जली का यह रासायनिक कल्प अत्यन्त तीक्ष्ण और उष्णवीर्य है ।
पित्त प्रधान रोगों में और पित्त प्रकृति के पुरुषों को यह बहुत हल्की मात्रा में सौम्य औषध सितोपलादि चूर्ण, प्रवाल पिष्टी आदि के मिश्रण के साथ देना चाहिए और ठण्डा उपचार करना चाहिए ।
वात और कफ के विकारों में यह तीर की तरह शरीर में प्रवेश कर शीघ्र ही उत्तम फल दिखलाना है । जन्तुग्न गुण के कारण रक्त में घुसे हुए मलेरिया , हैजा , गरमी ( सिफलिस ) आदि के कीटाणुओं को जल्दी नष्ट करता है । यह रक्तवाहिकाओं में उत्तेजना पैदा करना है और हृदय की गति को बढ़ाता है । तेज बुखार में इसे नहीं देना चाहिए । आतशक के लिये तो इसे न्यूसल्वर्सन इन्जेक्शन ही समझें । आतशक या सूजाक के कारण होने वाले गठिया तथा अन्य उपद्रवों में भी बहुत शीघ्र लाभ देखा गया है । पक्षाघात , आमवात धनुष्टंकार आदि वात रोगों में और कफ - सम्बन्धी कास , श्वास , न्यूमोनिया , उरस्तोय , डब्बा आदि रोगों में आशातीत लाभ करता है । शीतांग और कफ प्रधान सन्निपात में यह अपूर्व प्रभाव दिखलाता है । स्त्रियों के हिस्टीरिया रोग में इसका बहुत जल्दी प्रभाव पड़ता है । एक सप्ताह में ही सब दौरे समाप्त हो जाते हैं । बुढ़ापे की दुर्बलता और पुराने दमे के रोग में मल्लसिन्दूर अमृत के समान गुण करता है । यह पाचक रस को पैदा करके भूख पैदा करता है और मूत्राशय तथा शुक्रप्रणालियों की कमजोरी को दूर करके रक्त उत्पन्न करता है । हस्तमैथुन से नामर्द हुए मनुष्य को इसे अवश्य सेवन करना चाहिए । हैजे और अजीर्ण जन्य दस्तों के विष को यह जल्दी नष्ट करता है । वात , कफजन्य प्रमेह में यह रसायन अच्छा गुण दिखलाता है । अतः केवल बल - वीर्य वृद्धि के लिये भी इसका सेवन किया जाता है । यह थोड़े ही दिनों में शरीर को पुष्ट बनाकर मैथुन शक्ति को बढ़ा देता है । इसको प्रवालपिष्टी जैसी सौम्य औषध के साथ मिलाकर खिलाने से ज्यादा गर्मी नहीं मालूम होती है । कफजन्य सन्निपात में मल्लसिन्दूर का प्रयोग किया जाता है । सन्निपात की प्रारम्भिक अवस्था में इसका प्रयोग करने से सन्निपात की शक्ति कम हो जाती है तथा रोगी भी विशेष परेशान नहीं होता । कफ प्रकोप के कारण कंठ में कफ भरा हुआ रहता हो , घर्र घर्र आवाज होती है , साथ ही थोड़ा कफ भी निकलता हो , अधखुले नेत्र , अक - बक बकना , तन्द्रा , बेहोशी , कभी - कभी निद्रा आ जाना , ज्वर की गर्मी भी ज्यादा न मालूम पड़े - ऐसी अवस्था में मल्लसिन्दूर मधु के साथ देने बहुत फायदा करता है । दूषित जलवायु या कफकारक पदार्थ का विशेष सेवन करने से कफ प्रकुपित हो छाती में संचित होने लगता है । कफसंचित होने से फुफ्फुस और वातवाहिनी नाड़ी कमजोर हो जाती है , जिससे कफ जल्दी बाहर नहीं निकल पाता । फुफ्फुस की कमजोरी के कारण खाँसने में भी कष्ट होता है । ऐसी हालत में मल्लसिन्दूर के प्रयोग से संचित कफ बाहर निकलने लगता है । मल्लसिन्दूर के साथ प्रवाल चन्द्रपुटी या अभ्रक तथा लौह भस्म आदि भी मिलाकर देने से बहुत फायदा होता है । न्यूमोनिया या इन्फ्लुएंजा आदि रोगों में जिनका असर खास कर फुफ्फस पर पड़ता है , ऐसे रोगों से मनुष्य जब ग्रस्त हो जाता है , तब फुफ्फुसों की कमजोरी के कारण श्वास लेने में भी कष्ट होता है और रोगी इतना कमजोर हो जाता है कि वह देर तक बातें भी नहीं कर सकता तथा उसका हृदय भी कमजोर हो जाता है । ऐसी दशा में मल्लसिन्दूर आधी रत्ती , मोती भस्म या पिष्टी 1 रत्ती , लौह भस्म 1 रत्ती- इन्हें मधु या पान के रस में मिलाकर देने से लाभ होता है । मलेरिया ( विषम ज्वर ) में मधु और तुलसी पत्ती के रस के साथ दें । आतशक और सूजाकजन्य वात विकारों में मंजिष्ठादि क्वाथ या सारिवादि हिम और मधु के साथ दें । पक्षाघात आदि विकारों में मल्लसिन्दूर आधी रत्ती मधु के साथ दें । ऊपर से महारास्नादि क्वाथ 5 तोला मधु मिलाकर पिला दें । प्रमेह और बहुमूत्र में मल्लसिन्दूर आधी रत्ती , बंग भस्म 1 रत्ती मधु के साथ दें । शुक्रक्षय में मल्लसिन्दूर आधी में रत्ती , छोटी इलायची चूर्ण 4 रत्ती 2 माशे मिश्री में मिला दूध के साथ दें । आतशक और उसके विकारों में मल्लसिन्दूर आधी रत्ती मधु में मिलाकर चटा दें । ऊपर से सारिवाद्यासव 2 तोला बराबर पानी मिलाकर देना चाहिए । न्यूमोनिया , इन्फ्लुएंजा आदि रोगों में श्रृंगभस्म या गोदन्ती भस्म में मिलाकर पान के रस और मधु के साथ दें ।
आ.सा.सं.ग्ं
यह पोस्ट आपकी जानकारी के लिए है। अनजान इसे न बनाएं। किसी सिद्ध हस्त अनुभवी वैद्य से प्राप्त करके उनके मार्गदर्शन में ही सेवन करें।
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आपका अपना शुभचिंतक
डाँ० अमनदीप सिंह चीमाँ वैद्य
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